Friday, 12 August 2011


हर घडी खुद से उलझाना है मुक़द्दर मेरा
मैं ह़ी कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा 
किससे पूछु की कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूंढता फिरता है मुझे घर मेरा 
एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा  
मुद्दतें बीत गई ख़्वाब सुहाना देखे 
जगता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा 
आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
 आज तक हाथ में महाफुस है पत्थर मेरा -निदा फ़ाज़ली

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