मतियाया
सागर लहराया।
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर
पवन से भर उमंग से गाया।
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
किरण-अपसराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं-
जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती।
दूर धुँधला किनारा
झूम-झूम आया डगमगाया किया।
मेरे भीतर जागा
दाता
बोला:
लो यह सागर मैंने तुम्हें दिया।
हरियाली बिछ गयी तराई पर
घाटी की पगडण्डी
लजाई और ओट हुई-
पर चंचला रह न सकी फिर उझकी और झाँक गयी।
छरहरे पेड़ की नयी रंगीली फुनगी
आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गयी।
गेहूँ की हरी बालियों में से
कभी राई की उजली कभी सरसों की पाली फूल-ज्योत्स्ना दिप गयी
कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गयी-
कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गयी।
मेरे भीतर फिर जागा
दाता
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया:
लो यह हरी-भरी धरती-यह सवत्सा कामधेनु-मैंने तुम्हें दी
आकाश भी तुम्हें दिया
यह बौर यह अंकुर ये रंग ये फूल ये कोंपलें
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ
ये मैंने तुम्हें दीं।
आँकी-बाँकी रेखा यह
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते
यह तलैया गलियारा यह
सरसों के जोड़े मौन खड़े पर तोलते-
यह रूप जो केवल मैंने देखा है
यह अनुभव अद्वितीय जो केवल मैंने जिया
सब तुम्हें दिया।
एक स्मृति से मन पूत हो आया।
एक श्रद्धा से आहुत प्राणों ने गाया।
एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया।
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया
फिर भीतर
दाता खिल आया।
हँसा हँस कर तुम्हें बुलाया:
लो यह स्मृति यह श्रद्धा यह हँसी
यह आहूत स्पर्श-पूत भाव
यह मैं यह तुम यह खिलना
यह ज्वार यह प्लवन
यह प्यार यह अडूब उमड़ना-
सब तुम्हें दिया।
सब
तुम्हें
दिया
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