Wednesday, 13 July 2011

ज़मीन पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है - वासिम बरेलवी

ज़रा सा कतरा कहीं आज अगर उभरता है 
समदरो ह़ी लहजे मे बात करता है
खुली छतों के दीये कब के बुझ गए होते 
कोई तो है जो हवाओं के पर कुतरता है
शराफतों की यहाँ कोई अहमियत ह़ी नहीं
 किसी का कुछ ना बिगारों तो कौन डरता है
ज़मीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती
 जब आसमा से कोई फैसला उतरता है
तुम आगये हो तो फिर चांदनी सी बातें हो                        
ज़मीन पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है - वासिम बरेलवी  

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