उसूलों पे जहाँ आंच आये टकराना ज़रूरी है
जो जिंदा हो तो फिर जिंदा नज़र आना ज़रूरी है
नयी उम्रों की खुद मुख्तारियों को कौन समझाए
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके हरे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटे
सलीकेमंद शाखों का लचक जाना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आँखों में ताल्लुक टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्मना जरूरी है
सलीका ह़ी नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है खुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
की इसके बाद भी दुनिया मे कुछ पाना ज़रूरी है - वसीम बरेलवी